1. विचार नहीं, ‘विचारकर्ता’ ही ध्यान का पहला भ्रम है
ध्यान तब तक पूरा नहीं होता, जब तक ‘मैं ध्यान कर रहा हूँ’ का भाव है।
जब ‘ध्यानकर्ता’ मिटता है — तब ही ध्यान घटता है।
“ध्यान करना” → एक क्रिया है।
“ध्यान में होना” → एक स्थिति है।
2. ध्यान कोई ‘दृश्य‘ नहीं देता — वह ‘द्रष्टा‘ को मिटा देता है
बहुत लोग ध्यान में प्रकाश, अनुभूतियाँ, शांति खोजते हैं।
परन्तु वह सब मन का refined version होता है।
सच्चा ध्यान तब घटता है जब —
- विचार हैं भी, और आप उनसे बिल्कुल अप्रभावित हैं
- कोई अनुभव नहीं, फिर भी पूर्णता है
- मौन है, पर कोई मौन करने वाला नहीं
3. विचारों की गति को रोकने की कोशिश ही बाधा है
ध्यान में कुछ भी करना नहीं होता।
यदि आप विचारों को रोकना चाहते हैं, तो यह नया ‘विचार’ बन जाता है।
उपाय:
- विचार आएँ, आप देखें
- कोई प्रतिक्रिया न दें
- न उनको अपनाएँ, न उन्हें भगाएँ
यही विचार से परे जाने की कला है।
4. जब ‘करने वाला’ मिटता है, मौन प्रकट होता है
ध्यान की पूर्णता तब होती है जब
आप विचार नहीं होते,
भावना नहीं होते,
साक्षी तक भी नहीं रहते —
बस मौन की उपस्थिति रह जाती है।
“यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः“
(योगवासिष्ठ)
जहाँ भी मन जाता है, वहाँ समभाव रखो — वही समाधि है।
5. एक सरल ध्यान अभ्यास: मौन की ओर लौटने की विधि
प्रतिदिन करें — केवल 10 मिनट
श्वास को देखें – गिनें नहीं, बदलें नहीं
आँखें बंद, रीढ़ सीधी, चेहरा ढीला
जो भी विचार आएँ – सिर्फ जानें, पर पकड़े नहीं
जब लगे कि आप सोचने लगे हैं —
मुस्कराते हुए लौट जाएँ श्वास पर।
दिन में 5-6 बार 1 मिनट का mini-awareness pause भी लें।
6. एक प्राचीन मन्त्र (ध्यान में उपयोगी)
“शिवोऽहम् – मैं शुद्ध, मौन, चेतन स्वरूप हूँ।“
यह स्मृति ही विचारों को जड़ से उखाड़ देती है।
ध्यान का उद्देश्य ‘कुछ पाना’ नहीं, ‘सब कुछ छोड़ देना’ है
ध्यान कोई उपलब्धि नहीं,
वह एक विसर्जन है – विचार का, अनुभव का, स्वयं का।
जब सब कुछ गिर जाता है —
तब जो बचता है, वही स्वरूप है।
वही परम मौन, वही अनहद नाद, वही ध्यान।