(विचारों से परे, साक्षी भाव से आत्मा की स्मृति तक की यात्रा)
“कुछ भी एक दिन में नहीं होता। ये जन्मों–जन्मों की साधना है।“
विचारों से परे जाना — यह कोई तात्कालिक प्रयास नहीं, यह एक दीर्घकालीन यात्रा है।
यह वही मार्ग है जो ऋषियों ने हजारों वर्षों तक नापते हुए बताया —
“यत्र विचार न गच्छन्ति“ — जहाँ विचार भी नहीं पहुंचते, वही आत्मा का निवास है।
परंतु ये विचार ही हैं जो हमें बार-बार बहा ले जाते हैं।
सजगता आती है, फिर खो जाती है…
ध्यान करते समय एक सजग क्षण आता है —
मानो भीतर मौन का दीपक जला हो।
लेकिन फिर एक विचार आता है… और फिर दूसरा…
और पता ही नहीं चलता — हम फिर खो गए।
यही साधना का संघर्ष है।
क्या सजगता को स्थायी बनाया जा सकता है?
हाँ, लेकिन ये सरल नहीं है।
यह तप है — धैर्य, समर्पण और निरंतर अभ्यास का।
पतंजलि कहते हैं:
“सा तु दीर्घकाल नैरन्तर्य सत्कारसेविता दृढ़भूमिः“
(जो साधना लंबे समय तक, बिना रुके, श्रद्धा से की जाए – वही स्थिर और गहरी होती है)
आम साधक क्या करे?
- नित्य अभ्यास (साधना):
ध्यान, प्राणायाम, मौन, मंत्र — थोड़े-थोड़े करके, रोज़। - विचारों को देखें, दबाएँ नहीं:
साक्षी बनें, जैसे फिल्म देख रहे हों।
न भागें, न चिपकें — बस देखो। - शास्त्रों, सत्संग, गुरु की छाया लें:
जो भटकते हैं, उन्हें प्रकाश दिखाने वाला कोई चाहिए। - धैर्य रखें:
गिरना साधना की विफलता नहीं, उसका हिस्सा है।
तो मूल स्वरूप क्या है?
“मूल स्वरूप“ वह है जो विचारों, भावनाओं, स्मृतियों से परे है।
वह नाम, रूप, पहचान से रहित मौन सत्ता है।
शास्त्रों में उसे अनेक नामों से पुकारा गया है:
- आत्मा
- ब्रह्म
- साक्षी
- चैतन्य
- परा प्रकृति
- शिव
- पूर्ण शून्यता (Sunyata)
उपनिषद कहती है:
“नेति नेति“ — यह नहीं, वह नहीं।
(जो कुछ भी तुम्हारे मन में आए — वह आत्मा नहीं है।)
गौरव नहीं, ज्ञान नहीं, भावना नहीं — बस मौन साक्षी।
उसका अनुभव कैसा होता है?
आत्मा का अनुभव शब्दों में नहीं समाता।
लेकिन साधकों ने जो कहा है, वह यह है:
पूर्ण मौन — भीतर कोई खिंचाव नहीं
शांति का अनंत महासागर
विस्तार का अनुभव — “मैं शरीर नहीं हूँ“
न समय, न स्थान — सिर्फ ‘अभी‘ और ‘यहाँ‘
प्रेम और करुणा स्वतः बहने लगती है
कर्तापन का अंत — कोई करता नहीं, बस होता है
“द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धः अपि प्रत्ययानुपश्यः“ — पतंजलि
(साक्षी केवल देखता है, पर वह शुद्ध और अचल होता है)
समापन: भीतर की पुकार को मत अनसुना करो।
जब कोई बार-बार ध्यान में लौटता है,
विचारों से ऊपर उठता है,
साक्षी में ठहरता है…
तो धीरे-धीरे — वह अपने मूल स्वरूप में स्थित हो जाता है।
और वही है मुक्ति।
यही है योग।
यही है सत्य जीवन।
चलो लौट चलें… मूल की ओर।
जहाँ न कुछ पाना है, न खोना — बस होना है।



