1. सजगता क्यों गायब हो जाती है?
जब आप सजग होते हैं — आप विचार को देख रहे होते हैं।
पर जैसे ही आप किसी विचार से जुड़ जाते हैं (यानी उसमें खो जाते हैं), सजगता छिन जाती है।
सजगता = देखना
असजगता = जुड़ जाना, पहचान बना लेना
“मैं सोच रहा हूँ“ का भाव आते ही साक्षी की स्थिति छूट जाती है — क्योंकि अब आप देखने वाले नहीं, विचारकर्ता बन गए हैं।
2. विचार एक ‘जाल’ है जो चुपचाप खींच लेता है
विचार कोई बड़ी आवाज़ नहीं करता — वह चुपचाप आता है, और धीरे-धीरे आपको अपने साथ बहा ले जाता है।
आप सोचते हैं – “मैं बस सोच ही तो रहा हूँ“,
पर यही बहाव, आपकी जाग्रति को भूल में बदल देता है।
“स्मृतिभ्रमः प्रमाणस्वरूपविपर्ययश्च“
(योगसूत्र 1.8)
विचारों का भ्रम ही स्वरूप-विस्मृति है — आत्मा का विस्मरण।
3. सजगता क्यों जरूरी है?
जब आप सजग होते हैं —
- विचार कमज़ोर हो जाते हैं
- “मैं सोच रहा हूँ” की पकड़ ढीली पड़ती है
- और धीरे-धीरे सोचने वाला ही खो जाता है
- बचता है सिर्फ मौन प्रकाश
4. क्या सजगता बनी रह सकती है?
हां, पर अभ्यास और धैर्य से।
जैसे दीपक हवा में थोड़ा डगमगाता है, लेकिन धीरे-धीरे स्थिर होने लगता है, वैसे ही सजगता भी स्थिर होती है।
“सा तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारसेविता दृढभूमिः“
(योगसूत्र 1.14)
जो अभ्यास दीर्घकाल तक, निरंतर और श्रद्धा से किया जाए, वही गहराई देता है।
5. अभ्यास: सजगता की पुनर्प्राप्ति कैसे करें?
- दैनिक ध्यान में सिर्फ ‘देखना‘
– विचार आए, बस देखें, नाम न दें, पकड़े नहीं। - एक स्मरण सूत्र (Anchor Thought):
– दिनभर मन में दोहराएँ:
🔸 “क्या मैं सजग हूँ?”
🔸 “मैं कौन हूँ जो सोच रहा है?” - श्वास की सजगता:
– श्वास आती-जाती है, वही सजगता का सबसे सीधा दरवाज़ा है। - छोटे जागरूक क्षणों की खेती करें:
– बर्तन धोते, चलते, खाते समय — सिर्फ देखें।
6. अंत में – विचार नहीं, ‘विचार करने वाला‘ ही असत्य है
महर्षि रमण कहते हैं:
“‘मैं’ विचार से पहले क्या था – वही सत्य है।“
जब आप बार-बार सजगता में लौटते हैं, तब आप ‘विचार’ से नहीं, ‘विचार के मूल’ से मुक्त होते हैं।
वहाँ कोई सोचने वाला नहीं बचता – बस शुद्ध उपस्थिति (Presence) शेष रहती है।
सजगता का टूटना दुखद नहीं, एक अवसर है
हर बार जब सजगता टूटती है और आपको इसका ध्यान आता है —
वही क्षण एक बड़े कूद (leap) का द्वार है।
“बार–बार भूलो, बार–बार लौटो — यही साधना है।“
अंत में एक मंत्र (रोज़ दोहराएं – मौन में):
“अहं विचार: नास्ति। केवल साक्षी है।“
(मैं विचार नहीं हूँ, मैं देखने वाला हूँ)